शब्द तेरे चुभतेहै
शब्द तेरे चुभतेहै
आज कुछ तुने ऐसा कहाँ
परवरिश पे मेरी ही मुझे शक होने लगा
क्या कहाँ था मेनै
बस तुझे अपनी जिंम्मेदारी का ऐहसास
हि दिलाया था
किसी और की नहीं खुदके प्रतिही ही तेरी 'जिम्मेदारी '
कहाँ गलत हुँई में के इतना भी पूँछने का हक नहीं
नहीं है हक कि गलत उसकी आदतों को बदलने का ?
बरबाद होती उसकी सेहत भी न देखूँ
या न देखू बेहकते कदम उसके
कितने जतन से पाला है उसे
क्या बरबाद हुँआ देखने को
आजकल असकी आँखो में सपने नहीं
कुछ कर गुजरने के
पर ख्वाईशे सारी है शेहजादेगी देखो
अंधी होड मे दिखावे की बेहता जा रहां है
कुछ हमे कुछ खुदिको बरबाद करता जा रहाँ है
सब देख के ऐ नजारे ,मन दु:खी बहोत होता है
कही अपनी ही परवरीश पे आजकल ये भी रोता है
कुछ केह दू गर उसको ,तो चुप नहीं रेहता ओ
गुस्सेसे आँख दिखा,के ओ मूझ से ये केहता है ,"
छोड दो मुझे ,क्यो छोडते नहीं हो !"
क्या इन शब्दों में काँटे नहीं है ?
जो चुभते है दिल को मेरे
जलाते भी है ये जलजले।
