शब ए माह
शब ए माह
माना के शब - ऐ - माह के बराबर नही हु मैं,
लेकिन किसी के रहम पर नही हु मैं ।
इंसान हु मसीहा तो नही,
यू मुड़कर न देख महबूब नही हु मैं।
यू मै हो के भी निसार तुझपे,
यकता खड़ा नही हु मैं ।
ए महबूब यू माज़ी की यादों को लिए,
बेगाना रहा नही हु मै ।
मकता
"नीरव" तेरे छंद मै लिखी तो है ग़ज़ल,
तेरी एक नज़्म के बराबर नही हु मै ।

