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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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शाम की धूप

शाम की धूप

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शाम की धूप सा देख चेहरा तेरा

थम गये हैं कठिन प्रश्न हालात के

रात भर भोर चलती रही, आ गयी

कह रही है कहानी ये एहसास की।


जिंदगी एक नदी सी रवानी नहीं

ये ठिठकती भी है खुद के पदचाप से

लड़ भी उठती है अपने ही अंदाज से


बर्फ की धूप सा देख चेहरा तेरा

थम गये हैं चलन घात प्रतिघात के

रात भर भोर चलती रही आ गयी

कह रही कहानी ये एहसास की।


कुछ तो है जो दिखा भी नहीं ख्वाब में

कुछ तो है बिन दिखे कर रहा है बसर

कुछ तो है दर बदर, हर सफर, हर 

जगह


चाँद की चांदनी देख चेहरा तेरा

है उमंगित हवा तेरे ही साज की

रात भर भोर चलती रही आ गयी

कह रही है कहानी ये एहसास की।


जिसने सोचा था अक्षर बनेंगे दिया

और बुझाने में ही खाक होगी हवा

ये तो अंजाम है शाम की धूप का।


वक्त के रूप सा देख चेहरा तेरा

चल पड़े हैं सहज पांव आगाज के

रात भोर चलती रही आ गयी

कह रही है कहानी ये एहसास की।


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