सफ़र-ए-हयात
सफ़र-ए-हयात
कभी बेखुदी में तो कभी बेबसी में,
खूब गुज़री हमारी, यार बेकसी में।
फिक्र तमाम है दौलत से वाबस्ता,
खुद से मिले हम दौरे-मुफलिसी में।
खुद्दारी-ओ-ग़ैरत रखे ज़िंदा ईमान,
मिलता नहीं ये ज़ज़्बा हर किसी में।
ज़िंदगी की धूप में कड़ी मशक्कत,
यादों की छाँव है वक़्त-ए-उदासी में।
मुफ्त की दावतों में, वो लज़्जत कहाँ,
जो खूं-पसीने की इक रोटी बासी में।
एक की मज़बूरी, तो शौक़ दूसरे का,
देखा ये मंज़र ज़माने की बेलिबासी में।
'दक्ष' ग़म नहीं सफरे-हयात से कभी,
मिले तमाम तज़ुर्बे-ओ-सबक इसी में।