सांसों पर ना जोर रहा।
सांसों पर ना जोर रहा।
पैंसठ का बचपन लौट के आया।
पाया था बहुत कुछ लेकिन फिर भी खुश ना हो पाया।
इच्छाएं अभी भी अधूरी सी थी।
शरीर में पहले सी हिम्मत ना थी।
वह लोग जो करते रहते थे तारीफ मेरी।
अब उनकी नजर भी तो मेरी और ना थी।
आज तक मेहनत जी तोड़ की थी।
अपनी ख्वाहिशों की परवाह ही मैंने कब की थी।
बस पैसे कमाने में ही लगा हुआ था।
अपने शरीर की ही कब मैं सुनता था।
आज बीमारियों ने चहुं और से घेरा है।
आज समझ में आया जिस को समझता था मैं अपना आज वह भी नहीं मेरा है।
सोचता था एक दिन पूरी दुनिया घूम लूंगा मैं
लेकिन अब तो साथ घुटनों ने भी छोड़ा है।
खोखला कर दिया है तनावों ने मुझे।
सांसों पर भी तो अब जोर ना रहा है।
मन तो अब फिर से बचपन में लौट आया है।
लेकिन अब संभाल करने को माता-पिता का सर पर हाथ ही कहां है?
अब खुद ही तो माता-पिता मैं बना हुआ हूं।
बच्चों के लिए अजूबा मैं बना हुआ हूं।
उनके लिए तो आज हूं मैं बड़ा बूढ़ा।
लेकिन मैं तो अपने बचपन में लौटा हुआ हूं।
फिर से चाहता हूं कोई प्यार से खिलाए
फिर से चाहता हूं कोई प्यार से नहलाए और सुलाए।
मेरी हर बात पर ध्यान दे कोई,
मैं शब्द बोलता ही रहूं और कोई मेरी हर बात को ध्यान से सुनता ही जाए।
अंधेरे से डर फिर से लगने लगा है।
तब माता-पिता थे पास में लेकिन अब बच्चे कहां हैं?
उनकी भी तो व्यस्तताएं हैं अपनी।
मेरी पुरानी ही दिनचर्या का अनुसरण उन्होंने किया हुआ है।
बहुत से ख्याल अब मन में घूमते हैं।
अपनी ही गलतियों को मन के आईने में हम देखते हैं।
परमात्मा सबको उनकी राह तुम दिखाना।
ना पड़े किसी को भी जीवन के किसी भी मोड़ में पछताना।
ख्वाहिशें सब की पूरी हो जाए।
सबके मन बेहद शांत और संतुष्ट हो जाए