साड़ी का पल्लू उससे कहाँ संभलता
साड़ी का पल्लू उससे कहाँ संभलता
साड़ी का पल्लू उससे कहाँ संभलता है,
फिर वो साड़ी पहन मेरे कदमों के साथ चलती है,
माथे पर गोल बिंदा,मुस्कुराते होठों पर हल्की सी लाली,
उसके चेहरे पर दिन में चाँद सी दिखती है,
उससे नहीं संभलती साड़ी फिर वो पहनती है,
मैं कहूँ मेरे लिए, वो कहे हाँ तेरे लिए,
जिंदगी अब मुझे जिंदगी सी लगती है,
जब वो साड़ी पहन के मेरे कदमों के साथ चलती है,
सारी जिम्मेदारियां और लज्जा को वो कंधे पर रखती है,
घर के आंगन में लगी तुलसी को वो पानी देती है,
माँ की सारी जिम्मेदारी बड़े अदब से संभालती है,
अब वो साड़ी का पल्लू इतने अच्छे से संभालती है।