ऋत ने ली अंगड़ाई
ऋत ने ली अंगड़ाई
बसंत ऋतुराज होता सभी ऋतुओं में मनभावन
नवपल्लव सृजन से करता चराचर में आवागमन
जीवमात्र सभी वसुंधरा को करते हैं शतशत नमन
ग्रीष्म की तपती गरमी कण-कण को है झुलसाती
तृषित होते हैं जन-जन अग्निबाण जैसे हो चलाती
दाहकता बढ़े क्षण में शीतल छाया मन को लुभाती
वर्षा की हर बूँद बरसती जीवन में उमंगें हैं जगाती
तप्त धरा को शीतल कर हरियाली ऐसे लहलहाती
तृप्त कर देती तन-मन श्रृंगार प्रकृति का ऐसे कराती
शरद ऋतु में वातावरण यूँ होने लगता है प्रफुल्लित
उष्मा कम हो नवरात्रि में हर मन हो जाता पुलकित
मद्धिम ठंडी हवाओं में हर क्षण बन जाता उल्लसित
हेमन्त ले आता है आहट हल्की-हल्की सर्दियों भरी
नव चेतना हर दिशाओं में साथ लाती है धूप सुनहरी
ख़ुशियों के गीत गाता हर दिल की चाहत होती गहरी
शिशिर की शीत लहरों से हालत बदल जाती सबकी
गुलाबी हर सहर हो या सुहावनी बातें ठिठुरती शब की
बर्फबारी से ओढ श्वेत चादर कारीगरी दिखती रब की
जीवन में सबके संदेशा अनोखा हर एक मौसम लाता
देता झोली भर-भरकर कभी हँसाता तो कभी रुलाता
उतार-चढ़ाव के रंग-रूप बदल उम्मीद नई देकर जाता।