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Swati K

Abstract Classics

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Swati K

Abstract Classics

आज

आज

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यादों के समंदर में डुबकी लगाती

कभी मुस्काती कभी आहें भरती

कभी उन लम्हों में खुद को तलाशती

इस कदर डूब रही थी मैं


वो कल था जिसमें उलझकर

खुद को भूल रही थी मैं

होश ना था "आज" से बेवजह

दूर हो रही थी मैं...


अभी अभी जागी और 

खिड़की की ओट से झांकी लगा

कितनी खूबसूरत है ये भोर की किरणें...


उजाले की चादर ओढ़े जैसे 

नयी उम्मीद नयी राह दिखाती ये सुबहें

कितना सुखद एहसास जैसे

दो बिछड़े हंसों का जोड़ा मिला हो


जैसे नयी उमंग नयी जोश 

नये हौसलों ने दस्तक दी हो

जैसे अभी अभी धुंध छटी और

रास्ता नजर आया हो

वैसा ही कुछ महसूस हुआ अपने अंदर...


ना जाने क्यों अंधेरी रातों को

अपना मान बैठी थी

ना जाने क्यों बीते कल में

सिमटी हुई थी

अब जाना "आज" हर पल हसीन है...


वो बादलों से झांकती इंद्रधनुषी छटा

कह रही हो जैसे मुस्कुराना सीख ले जरा

वो नन्हें बच्चों की किलकारियां वो शरारतें

कह रही हो जैसे गमों को भूल जा जरा

वो सावन की पहली बौछार


वो सुबह की गुनगुनाती धूप

वो चिड़ियों की चहचहाहट

कह रही हो जैसे खुशियां बटोर ले जरा

आओ ये पल ये लम्हें "आज" जी लें जरा।


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