चुप्पियां अंत नहीं आरंभ......
चुप्पियां अंत नहीं आरंभ......
चुप्पियां चुप कहां रहती
भीतर कहीं शोर करती
शोर......
समय की सिलवटों में
धुंधलाये कुछ सपनों का.....
दबी सिसकियों का.....
मौन आंखों में ठहरे संवादों का.....
उफनते शब्दों के समंदर में
निःशब्द भावनाओं के वेग का.....
पर शोर से परे धीमे धीमे चुप्पियां.....
आस का दीप प्रज्ज्वलित कर
सहेजती भीतर आभा.....
समेटे अंतहीन प्रयासों,संघर्षो की लड़ियाँ
और अपराजिता सी कभी धरा
कभी आसमां में बिखर कहती कहानियां......
चुप्पियां चुप कहां रहती......
अंतर्द्वंद्व,आत्ममंथन,आत्मसंवाद करती.....
जीवन के अद्भुत,अपरिचित प्रश्नों में
ढूंढती स्वयं को और करती स्वयं को परिभाषित.....
शायद हां.....
चुप्पी अंत नहीं
आरंभ नये अभिव्यक्ति की
आत्ममंथन,आत्मचिंतन की.....स्वाती
