स्त्री......
स्त्री......
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मिट्टी की सौंधी महक सी
शाखाओं की नई कोंपलों सी
फूलों पे बिखरी ओस की बूंदों सी
धीमी धीमी बहती मन को चैन देती बयारों सी
शब्दों में पिरोये काव्य सी
या फिर स्वयं में सिमटी ,
कुछ अनछुए अधूरे सपनों सी
क्या हूं मैं......
भोर की लाली सी
उम्मीद यकीं के धागे में लिपटी इक स्त्री
सपनों को उड़ान देने की सशक्त कोशिश करती......
