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Arun Gode

Classics

4  

Arun Gode

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मन की खलबली

मन की खलबली

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रात का घना अंधेरा पतला हो चला,

सुबह का उजाला धीरे-धीरे बढता चला.

किसी के संकट के बादल सिमटते चले,

किसी के संकट का समय शुरु हो चला.


किसी ने रात भर करवटें बदली,

शुभ सुबह के प्रतिक्षा में रात ढली.

किसी की मायूसी तो किसी की खुशी झलकी.

सुबह की सुनहरी धूप सबके लिए खिली,


उजाले के बाद फिर अंधेरा घना हो चला,

संकट के बादल किसी के फिर घने हो चले.

असफलता ने किसी के परेशानी की होली जली.

अचानक सफलता से किसी की नींद उड चली.


सफलता-असफलता ऐसा बना सिलसिला,

कभी-खुशी तो कभी गम था मिला-जुला.

हर दिल और दिमाग में मची रही खलबली,

रात और सुबह तो निरंतर उलझती चली.



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