दास्ताँ-ए-मोहब्बत
दास्ताँ-ए-मोहब्बत
गुलज़ार ज़िंदगी यूँ इश्क़ का लाती है पैगाम
होगी मुलाक़ात सनम से रखना दिल ये थाम
लगा ले चाहे बंदिशें लाख ज़ालिम ये ज़माना
फिर भी होकर रहेगा मुकम्मल यूँ अफ़साना
दूर से ही मिलन की ऐसे आहट देकर जाती
तेरे जिस्म की महक फ़िज़ाएँ यूँ लेकर आती
तोड़कर दीवारें मज़हब की बसाएँगे नया जहाँ
चाहत ही रवायत हो ज़िंदगी की दिलों में वहाँ
बदलेंगे दस्तूर दास्ताँ-ए-मोहब्बत ऐसी लिखेंगे
हो जाएँगे अमर यूँ ज़र्रे-ज़र्रे में हम-तुम दिखेंगे।