रोता है मज़दूर
रोता है मज़दूर


हाँ रोता है मज़दूर
रोती है उनकी ख़्वाहिशें
बच्चे भी रोते है उनके
रोती है फरमाइशें !!
रोते वो भविष्य देखकर
वर्तमान को नरक बना रहे है
सोई पड़ी राजधानी को
अब ये मज़दूर जगा रहे है!!
पैदल पैदल चलकर थकते
पैदल ही चलते जाते है
खुद का कोई सहारा नहीं
बस आगे बढ़ते जाते है!!
खाने को रोटी नहीं
पानी का बस सहारा है!!
मेहनत से ज़िंदा है वो
बस किस्मत से ही तो हारा है!!
रोती नही ये जनता साथ में
रूदन से ही इनको जगाया जाये!!
बाहर बैठे मज़दूरों को
चलो घर में लाया जाए!!
बंधी पड़ी है पट्टी आँख पर
वो आँख मूंदकर सो रही है
मेरा देश बहुत महान है साहब
यहां मज़दूरों पर भी राजनीति हो रही है!!
थकते है पैर भी उनके
वो सड़को पर भी सोते है
दर्द उनका महसूस करना
जब उनके भूखे बच्चे रोते है!!
दिहाड़ी वालो से पूछा किसीने
पैदल कैसे चल लेते हो??
मज़दूर ने जवाब दिया
"पेट है साहब पैरो को कहाँ रुकने देता है!!
स्वाभिमान है साहब
ऐसे थोड़े ही झुकने देता है!!
मीडिया हमारी कवरेज दिखाती
काश 2 रोटी ही दे जाती!!
भला हो हेमन्त का
जो उसकी कविता हमारी पीड़ा बताती!!"