हाँ, मैं भी हूँ अधिकार की स्वामिनी
हाँ, मैं भी हूँ अधिकार की स्वामिनी
जग कठपुतली-सा मुझे नचाता,
ले आबरू मेरी, धूम मचाता।
लूट रही है काया मेरी,
इन अनजानों की बस्ती में।
अधिकार मेरा किसने छिना
सुंदर गृहस्थी बसाने का ?
न कोई रिश्ता, न नाता कोई इनसे
फिर क्यों कुचले-रुंधे,
समझ चंपा, चमेली या फिर कोई रजनीगंधा?
भेस बदलकर आते
यहाँ जाने कितने लुटेरे।
क्या मुझे अधिकार नहीं
मानव बनकर जीवन जीने का ?
कभी गरीबी से तो कभी बेबसी से
बनती हूँ आहार हैवानों-दरिंदों का।
चीख उठती है रूह मेरी
गूँज न सुनाई देती किसी को।
क्या मुझे अधिकार नहीं
शांत जीवन जीने का ?
सभ्य सभी हैं इस धरा पर
सभ्य से ही हैं हवस मिटाते।
एक बदनाम दाग बन
रेड लाइट एरिया को चमकाने
फिर-फिर हैं वे आते।
क्या मुझे अधिकार नही
बेदाग जीवन जीने का ?
हाँ !
यही है सभ्यों की बदनाम गलियाँ
जहाँ हर रोज़ जलते आबरू के परदे।
लूट लिए जाते हैं जिस्म
चंद सिक्कों के जाल में।
क्या हमें अधिकार नहीं
आबरू के साथ जीवन
बिताने का ?
जिस्म का पुर्जा-पुर्जा टूट आता है
हो जाती है रूह ,जिस्म से परे।
देखती है वो ,
बिस्तर पर बने लाश मुझे......
क्या हमें अधिकार नहीं
संस्कारित जीवन जीने का ?
न कोई आशा, न कोई उम्मीद,
न ही भर सकती हूँ
माँग में चुटकी भर सिंदूर।
है कहाँ घर मेरा,
मेरा तो सिर्फ होता है कोठा।
कहलाती हूँ कभी वैश्या, तो कभी तवायफ़।
चले आतें हैं हर मजहब
बड़े शान से इसी कोठे पर
एक नीरीव को लूटने.....हाँ एक नीरीव को लूटने।
क्या मुझे अधिकार नहीं ?
क्या मुझे अधिकार नहीं सुंदर, वांछित जीवन
जीने का ?
