गांव का दृश्य
गांव का दृश्य
मुहब्बत की दुकान में नफरती सामान धड़ल्ले से बिक रहा है
मेरे गांव की आबोहवा में राजनीति का मीठा जहर घुल रहा है
भाईचारा न जाने कहां दफन हो गया, संवेदनाऐं मर सी गई हैं
"पराली" की तरह से रह रहकर ये दिल न जाने क्यों जल रहा है
गांव की मिट्टी में बसी वो सौंधी सौंधी महक कहीं गायब हो गई
दिलों में बसी हुई सड़ांध का रावण सुगंध के हरण को मचल रहा है
अभावों में पलती हुई मानवता किसी हवेली की दासी बन गई है
आंखों से झलकता उच्छ्रंखल भाव हमारी संस्कृति को खल रहा है
ममत्व, प्रेम और वात्सल्य अब तो मृग मरीचिका से लगने लगे हैं
शहरी सभ्यता का भूत अब गांवों में रहकर खुल के फल रहा है।
