वहम
वहम
क्यों हम उतर पाए न खरे
एक दूजे की कसौटी पर
आने लगा कुछ कुछ समझ!
दर्जा जो दिया हमने ख़ुदा का
एक दूजे को,बड़ी मोहब्बत से
वहम जैसे पाल लिया बेकार!
हम तो हैं आख़िर इन्सां नादान
एक दूजे के वहम को देते रहे
तवज्जो,भूल गए अपनी औक़ात !
है मलाल यही- -गुनहगार नहीं कोई
मगर सज़ा पड़ेगी भुगतनी दोनों को
यहां अपना तलबगार नहीं कोई !
