रोशनी के पंख
रोशनी के पंख
"बिखर रहा है अर्श में स्याह सा एक रंग,
बुनती हूं मैं रोशनी के पंख।
सितारें टांकती हूं, चांदनी थोड़ी सी चांँद से मांगती हूं,
जुगनुओं से बनाती हूं रोशनी के पंख।
चाहती हूं उड़ना ख़ामोशियों में हवाओं के संग।
रोशनी ही रोशनी बिखर गई,
बज्म-ए-शब में चमकते हैं मेरे पंख,
महक रही थी रातरानी, कुमुदिनी भी खिल उठी।
किस ओर गये फरिश्ते छोड़ ख्वाबों की गठरियां,
चहक उठे पंछी,उड़ चली तितलियाँ।
फिर शोर में बदल गई ख़ामोशियाँ,
सिहर गई मैं,सहम गई मैं,
गिर गई अर्श से जमीं पर मैं,
टूट कर बिखर गए मेरे रोशनी के पंख।
तिनका-तिनका समेट कर रखा है
दिल की दीवारों में नज़रबंद।
मेरे रोशनी के पंख।