रंग मिट्टी के
रंग मिट्टी के
रंग मिट्टी के अब बदल रहे हैं,
फिर भी नहीं हम सम्हल रहे हैं,
काटे ही जा रहे वृक्षों की गर्दनें,
पवन भी सुकूं से नहीं चल रहे हैं,
फिर भी नहीं हम सम्हल रहे हैं।
वो साखों पर पंक्षियों का बैठना,
वो लंगूरों का डालियों का ऐंठना,
डालों छालों से कीटों की दोस्ती,
इस सभी ने कुछ न कुछ खो थी दी,
बस शब्दों में ही करवटें बदल रहे हैं,
फिर भी नहीं हम सम्हल रहे हैं।
अब पानी भी प्यास बुझाने आते नहीं,
सूखे हैं इस कदर दिल लगा पाते नहीं,
चीख़ के भी ख़ामोश और करें भी क्या,
जो सुधरे ही ना तो उन से लड़े भी क्या,
अब खेतों से भी इंसाँ निकल रहे हैं,
फिर भी नहीं हम सम्हल रहे हैं।