रिवायातें तेरे शहर की !!
रिवायातें तेरे शहर की !!
मुझे नहीं समझ आती
रस्में रवायतें तेरे शहर की
जो अच्छा बुरे में फर्क नहीं जानती
जो झूठ के खिलाफ तर्क नहीं मानती
रस्में तेरी मयखानों से हो के गुजरती हैं
रियायतें तेरे संस्कार को काला रंगती हैं
जिस्म तेरा डूबा हैं, सौंदर्य की झुठी शान में
और डूबा है तेरा मन, कालिख पड़ी पहचान में
अच्छाई का लेन देन तो है ही नहीं तुझमें
बुराई का बड़ा सा कारोबार बसा रखा है सबने
गलत को सही कह, कोसते हैं सारे
सही को गलत कर, परोसते है सारे
अजब दुनिया है तूने बसाई
तेरी धूमिल आदतें तेरे अक्स की है परछाई
वक्त का तकाजा तू नहीं जानता
कर्मों का हिसाब , तू नहीं मानता
एक दिन ऐसा आएगा
कर्म की लाठी पड़ेगी और आवाज भी नहीं होगी !!
