रे... फ़की़रा
रे... फ़की़रा
मोहलत मांगी थी
इजाजत तो नहीं दी थी
भला तारों से कौन तोड़ लाता यक़ीन
महफूज करने रिश्ते को
काफिला चल पड़ा था जिन्दगी का
फ़की़र बन ढूंढते थे ठिकाना
कहां से लाए इतना जज़्बात
अपना आशियाना ही बना डाला
देखा है मैंने
अनकही लफ़्ज़ों में उलझते हुए
कैसे बेइंतहा एहसासों को भर दिया
साज़ थिरकने लगी हर नगमे पर
बेपरवाह हवा का झोंका था
इनायत तो नहीं की थी
कब रुहानी ख़ुशबू से भर दी दामन
पंखुडी बन बिखर गई कदमों पे!