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Anjuman Mansury

Classics

3  

Anjuman Mansury

Classics

रौशनी के सामने

रौशनी के सामने

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शम्'अ रौशन कर दी हमने तीरगी के सामने

टिक ना पाएगा अंधेरा रौशनी के सामने।


बिन थके चलता रहे जो मंजिलों की चाह में

हार जाती मुश्किलें उस आदमी के सामने।


पर्वतों से हौसलों को देखकर हैरान है

आसमां भी झुक गया है अब ज़मी के सामने।


आबे जमजम चूमता है एड़ियों को तिफ़्ल की

हार कर बहता है चश्मा तिश्नगी के सामने।


रोज़ हों रोज़े हों चाहे या के हो कोई नमाज़

माँ की खिदमत है बड़ी हर बंदगी के सामने।


मैंने माना तू बड़ा है प्यासा रखता है मगर

ए समंदर तू है छोटा मुझ नदी के सामने।


खूबियों से भी नवाजा 'आरज़ू' अल्लाह ने

फिर भला क्यों हार जाऊं इक कमी के सामने।


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