जीवन नौका
जीवन नौका
प्रकृति चैत्र मास में जैसे, सकल नवल हो जाती है
जीवन को जीवन देकर माँ, नवजीवन खुद पाती है।
तेज भले वैशाख धूप हो, पथ संघर्ष चलाती माँ
अमलतास पलाश शिरीष सा, खिलना हमें सिखाती माँ।
जीवन जेठ दुपहरी सा तो, माँ है पीपल छाया सी
जल सी पावन शीतल निर्मल, मूल्यवान सरमाया सी।
आषाढ़ मास बरखा से जब, मन-माटी गीली हो ली
संस्कार-बीज बो देती माँ, बोल बोल मीठी बोली।
माँ सावन सा नेह सींचती, सजा अधर पर मुस्कानें
खुश होकर कजरी गाती वह, हरियाती जब संतानें।
कभी निराशा में जब छाते, भय के बादल भादो में
संबल भरती सूर्य किरण सी, माँ आशा संवादों में।
माँ कहती दुख-घन जब छटते, शरद चंद्रमा है आता
हों ज़रूरत ओस सी छोटी, अश्विन संदेशा लाता।
मन कार्तिक की रातों को माँ, दीवाली कर देती है
घोर तमस्वी भरी अमा को, जगमग जग कर लेती है।
अवसादों की सर्दी में माँ, धूप बने हल्की मीठी
अगहन सूरज बन हर लेती, सारी पीड़ाएँ सीठी।
पौष दिवस सा सुख जब आकर, झट से वापस हो जाए
धीरज धरना सिखला कर माँ, अनुभव ऊष्मा फैलाए।
माघ कुहासा सी अड़चन गर, इस जीवन में छा जाती
डगमग मत हो भर डग मग मे, माँ हिम्मत से समझाती।
माँ कोयल सी बोल रही है, मौसम हुआ सजीला है
इतनी सीखें पा जीवन ये, फाल्गुन सा रंगीला है।
रोज़ सुबह से सांझ ढले तक, आगे हमें बढ़ाती माँ
उदय अस्त सा सुख-दुख आता, जीवन पाठ पढ़ाती माँ।
ये सुबह सांझ ये मास बरस, आस-हवा का है झोंका
बस माँ की आशीष-पाल से, चलती है जीवन नौका।
