रौनकें
रौनकें
अजी जाएंगी कहाँ ये रौनकें
सब अपनी हसरतों को मसरूफ़ियत के
बिस्तरबंद में बंद कर बैठी हैं।
बस देर है गिरह खुलने की,
दूर से ही सही
इक दूसरे की साँसों के गुलकंद को
चखने की।
फ़िर जो ये रौनकें होंगी आबाद
तो....
भरे बादलों सी बरस जाएंगी
इस गुलशन में खुशबुओं की बरसात।
और....
तर हो जाएंगे सब ज्यों
बरसा हो फ़लक से आब-ए-हयात।
फ़िर खिलेंगे कुछ ग़ुल शोखियों के,
सोयी हुई कुछ नज्में
ज़िंदा होंगी फ़िर से ज़हन में।
चलेंगे कुछ अल्फ़ाज़ों के तीर
कुछ शेर-ए-सवार यूँ ही
मैदान में ढेर होंगे।
महफ़िलें बहारां फिर से सजेंगी
के इस गुलशन में
रौनकें फ़िर से शरारती पाज़ेब पहन
झंकार करेगी...
धिन तक धिन तक धिन तक धिन