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Palak Inde

Tragedy

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Palak Inde

Tragedy

रात

रात

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मैं टूटती थी

हज़ारों टुकड़ों में हर रात,

हर सुबह

खुद को वापिस समेटती थी


हर रात...

वो अपनी बनाई खोल से बाहर निकलती थी

दिन भर की बातों का इज़हार

अपनी किताबों से करती थी

वो अपने टूटते सपनों को

एकटक निहारा करती थी

कुछ देर की खामोशी के बाद

वो अश्रुधारा बहाया करती थी

वो रोकर उस गम से आज़ाद होने की

एक नाकाम कोशिश करती थी

और हर सुबह .....

खुद को वापिस समेटती थी


हर रात...

न जाने किसे कोस दिया करती थी

कभी खुद के तो कभी परिवार के सिर

नाकाम होने का इल्ज़ाम मढ़ दिया करती थी

हर किसी से शिकवा था

बस किताबों के करीब थी

खुद को अकेला महसूस करती

शायद..ये तनहाइयाँ ही नसीब थीं

जिसने भी मुझे उस हाल में पहुँचाया

उसे बड़ी शिद्दत से याद किया करती थी

और हर सुबह .....

खुद को वापिस समेटती थी


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