राम की व्यथा
राम की व्यथा
सीते!
काश!तुमने न देखा होता
वह मायावी हिरण
न की होती जिद उसे पाने की
काश! न मानी होती
मैंने तुम्हारी बात
तो रामायण कुछ और ही होती
सीते!
पिता की आज्ञा से
मिला वनवास
मिला लक्ष्मण और तुम्हारा साथ
वन में भी हम थे
कितने संतुष्ट और खुश
पर नियति को आया नहीं रास
न मानी तुम
कर दी लक्ष्मण रेखा पार
हो गया विजयी कपटी रावण
अगर निष्कासित करना ही
मेरा ध्येय होता तो
क्यों खोजता मैं तुम्हें
वन में भटक भटक कर
रात दिन एक कर
क्यों करता सागर पार
क्यों करता वध लंकेश का
सोने की लंका में
अयोध्या लौटने पर
जिस प्रजा ने
जलाए थे घी के दिए
बिठाया था सिंहासन पर
उसी प्रजा ने
उठा दिए थे कुछ सवाल
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मैं अपराधी
नज़रें तक न मिला सका
भेजते हुए वन में
लेना पड़ा सहारा लक्ष्मण का
निरूपाय हो रहा देखता
तुम्हें समाते धरती में
कुछ न कर सका
रहा अकेला विचरता
तुम्हारी यादों के साथ
राजमहल के प्रकोष्ठों में
सूनेपन के साथ वर्षों तक
रात की नीरवता में
दूर तुमसे रहकर
सुनने पड़े व्यंग्य बाण
लव कुश के
राम कथा में
अपने ही दरबार में
पिता होकर भी
पिता न हो पाया मैं वर्षों तक
हर युग में
समय प्रश्न बन
आएगा मेरे सामने
राम ! क्यों कर हुई
यह अनीति तुमसे
पर देने के लिए
कोई उत्तर नहीं होगा मेरे पास
काश! इतिहास कुछ और होता
काश! मैंने राज धर्म न निभाया होता
काश! मैं राजा न होता
काश! मैं राजा न होता।