आकलन
आकलन
सूरज ढ़लने को है सान्ध्य बेला में
चाहता है मन आकलन करूँ मैं,
उन बेहिसाब क्षणों का
जो अनायास मिले मुझे,
बीत गए यूँ ही, इधर उधर ऐसे ही
प्रश्न पूछूँ खुद से,
क्या जो पाना था पा सकी मैं?
या खो दिया मैंने जो नहीं खोना चाहती थी मैं?
हिसाब मांगू उस समय का
जो बीत गया अर्थहीन व्यस्तता में,
बिता सकती थी मैं उसे सुनने में
किलकारियां बचपन की
या उन्हें सहेजने में,संभालने में
या फिर समझने में उनके अन्तरमन को
जोड़ता है जो तार उनसे मुझे
टूटने से बचा पाती मैं।
करूं लेखाजोखा उन क्षणों का
जो बीत गए उधेड़बुन में, उलझनों में,
करवटें बदलते हुए कई रातों को
घिरे हुए दुश्चिन्ताओं के घेरे में।
गुजरते समय के इस पड़ाव पर
कुछ ठिठक कर,कुछ रुक कर
और न जाने क्यों थोड़ा सहम कर,
दे पाती सवाल उन सभी सवालों का
जो मन में उठे प्रश्न चिन्हों की तरह
सागर में जो खो गया बूँदों की तरह
तलाश पाती अपने उस अस्तित्व को।
अच्छा होता अगर मैं बचा पाती
स्वयं को देखने से दिवास्वप्नों के,
बिताती अपना समय प्रकृति की गोद में
पा सकती आशीर्वाद ,ईश्वर के वरद हस्त का।