राधा की व्यथा
राधा की व्यथा
कहती राधा सखि से आज मन व्याकुल कैसा है,
हो उठी भोर फिर भी जैसे मावस का अंधेरा है।
काटने को दौड़ती है अब ये सर्द हवाएं,
इन हवाओं में जैसे बाँसुरी के स्वर समाये।
विरह वियोगिनी राधा की सूरत गिरती जाये,
कैसा प्रेम का रोग लगा के प्रिये तुम न आये।
अकुलाती गई मैं देख काले काले मेघों को,
हाय! कैसे ये सब सह गई विधुत तरंगो को।
बैठी बैठी खो-सी गई जीवन की आपा-धापी में,
न जाने कब ये अखियां मुद-सी गई वियोग में।
फिर भी श्याम तेरी जरा देर को भी यादें न मिटा पाई,
स्वपनों के संसार मे मैंने फिर छवि अंकित पाई।
वन उपवन में, सर सरोज में,पत्तो की हँसी में,
वट वृक्ष की शाखाये, फूलों की महक में।
भौरों के गुंजन में, नदियों के कल-कल में,
पर्वत के आनन में, मिट्टी की सौध में।
वायु की गति में, ध्वनि के स्वर में, नभ के आंचल में,
पाषाणशिला पर पग के चिन्हों के दर्शन में।
मैं तुम्हारी अनुभूति करती जा रही हूँ,
मैं तुम्हारे हर रूप को देखती जा रही हूँ।
पर फिर भी मेरा जी नही रमता,
नई उमंग और उल्लास नही थमता।
मनमोहन की स्मृति को कैसे मिटाऊँ,
अपने जीवन दीप को क्यो बुझाऊँ!
हर मन को मोहित कर लेता है,
जैसे अपनी प्यारी सूरत कर लेता हैं।
मीठी मीठी बातों से मोह जाल बुनता है,
प्यारी प्यारी अखियों से मन हर लेता है।
नीले आकाश में संग गोपियों के रास रचाता है,
सबके सुख दुख को मनोस्थिति से वाच लेता है।
जो जन्मांक है,आदि-आंत का अन्तर्यामी है,
सृष्टि का पालनकर्ता, सूर्य के तेज का स्वमी है।
पूर्णिमा का जो चाँद, मावस का अंधेरा है,
सुख का जो कारण, दुख का वही निवारन है।
आशा का जो दीप, प्रकाश का आधार है,
जन्मजन्मांतर की मेरी पूंजी-धन संपदा है।
पर क्या हुआ ऐसे मैं लाखों वियोग सह जाऊँ,
मन मेरा उसके पास है क्या शिकायत कर पाऊँ?
मैं हूँ बड़ी भाग्यनी कृष्णप्रेम को पाया है,
इसी बात ने तो मन को बड़ा दिलासा दिलाया है।
मैं तो दासी हूं उस कृष्ण कन्हैया की,
जिसने कनुप्रिया के प्रेम को अपनाया है।।