पुकार रहा है, उत्सव हमें ।
पुकार रहा है, उत्सव हमें ।
समय की एक करवट है,
हम यह किसी ओर हो,
बदलते हुए स्वयं को ही दोहराता है।
हमारे साथ जो घट रहा है,
यह पहली बार नहीं घटा है
दुख और विषमताएं पहले भी थी।
तो फिर अब नैराश्य को ही क्यों बांचे हम?
विज्ञान के संदेहों में नहीं,
अध्यात्म के विश्वास में उत्साह के रंगों
की खोज करें हम।
पुकार रहा है, उत्सव हमें
कह रहा है भूल जाओ मन की मायूसियों को
और रंग लो रंगों से मन को।
हाँ सुनो तो सही, कि उत्सव आवाज दे रहा है।
कोयल की कूक और बसंती बयार की,
मादकता के बीच उदास पड़े ठूंठ से
निकलती नई कोपलें भी चुप कहाँ है?
कहती हैं, रंगों में रंग कर,
स्वयं को स्वयं में मिला लो।
भरपूर बरसकर रोने के बाद,
आसमान भी पानी की बूंदों पर पड़ती
धूप के साथ सतरंगी हो मुस्कुरा उठता है।
फिर हम क्यों बैठे हैं, होकर उदास और बेचैन ;
मिलकर करते तमाम निराशाओं का होलिका दहन।
फिर मनाते हैं रंगों की फुहारों,
उड़ते गुलालों और भांग की मस्ती में
डूब कर होली का त्योहार।
सुनो तो सही यह ऋतुराज,
आनंदमय हो सके हम हमें बुला रहा है।
