प्रतिकृति
प्रतिकृति
इस संसार में स्वयं से बेहतर कुछ नहीं ,
चाहे अच्छा हो या बुरा
या फिर मोहक या कुरूप हम अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति मात्र हैं।
ये हमारे कार्य और कला में ही नहीं,
हमारी पसंद और नापसंद में भी दिखता है।
प्रतिस्पर्धा एक अज्ञानता है, तो नकल आत्महीनता ।
प्रकृति ने हमें जो नियामते दी है ,
उसे पहचान अपनी खूबियां को उभारकर और अपनी खामियों का परित्याग कर,
प्रयत्न से अपना श्रेष्ठ हम हो सकते हैं।
स्वरूप में ही समाहित नहीं होते
प्रथम पूज्य श्री गणेश को,
श्रीफल प्रिय है, तो अति प्रिय।
कोई स्वयं के प्रयास से,
तो कोई किसी प्रेरणा से प्रेरित हो निखरता है ।
कुछ विरले ऐसे भी होते हैं ,
जो अपने प्रतिरूप से मिल स्वयं को पा जाते हैं।
इनके लिए जगत सुन्दर और ये जगत के लिए कल्याणकारी हो जाते हैं।
