मानवता और मौलिकता।
मानवता और मौलिकता।
धर्म कोई अफीम का नशा नहीं है ।
धार्मिकता की आड़ में ढोंगी और पाखंडी,
धर्मान्धता को उकसाकर मानवता के विरुद्ध,
घृणा का जो खेल हैं खेलते।
उसे धर्म कहना धर्म का अपमान है।
रुदन से प्रारम्भ हुई जीवन के साथ साथ-साथ मृत्यु भी चलती है।
जीवन संघर्षों से भरे जटिल राह पर,
झंझावात से जब भी घबराकर ठहरता है ।
धर्म के सरल मार्ग से तब साहस पाता है।
बाह्य जगत में जीवन अपनी
क्षण भंगुरता से भयभीत हो सुख के भटकता
अप्राप्त के दुख से दुखी हो अंतर जगत में मन से परे हो उतरता है।
धर्म ही ऐसे में जीवन को चिरस्थायी अमरता के सत्य से मिलाता है।
यह सत्य कोई कोरी कल्पना नहीं है।
अनुभूति यह अंतर में घटित है होता।
परखनली में मूर्त जीवन के निर्माण के पीछे विचारे का होना
कौन इंकार कर सकता है।
धर्म कहता है विचारों, कहीं हम भी किसी के विचार के मूर्त रूप हो।
बड़ा मूल्यवान है ,यह मानव जीवन, जो हमें मिला।
मौलिकता इसकी स्वतंत्रता प्रेम और प्रसन्नता में है।
देश काल और सीमा के बंधनों से मुक्त ,
जीवन के मूल्यों से ही जुड़कर ;
धर्म कहता है मानव यथार्थ में मानवता की रक्षा कर सकता है।
