पत्थर
पत्थर
पत्थर को देवता बनाने की ,
बहुत कोशिश की मगर ।
पत्थर देवता तो क्या इंसान ,
भी न बन सका ।
टूट गया हमारा नाजुक सा दिल ,
उसके जज्बातों को जगाते हुए ,
मगर एक बूंद एहसास का न पा सका ।
समझा था क्या ,और क्या निकला !
नादान था ,मासूम था, बेचारा ,
उसके दोगले पन को न समझ सका ।
सच ही कहा है किसी ने ,
पत्थर से सिर फोड़ने से क्या फायदा ,
इंसान खुद ही जख्मी हो जाता है ।
हमने की थी नादानी !
इसीलिए आज घायल हुए पड़े हैं ।
मन और आत्मा सब त्रस्त हुए पड़े हैं ।
अब तो यही आशा है ।
काश ! ईश्वर इससे मुक्त कर दे ,
या इस पत्थर को ही चकनाचूर कर दे ।
कुछ भी कर दे ,बस हमारी पीड़ा को दूर कर दे ।
