रफ्ता रफ्ता ...
रफ्ता रफ्ता ...
रफ्ता रफ्ता मेरे कदम बढ़ने लगे जब कज़ा की मानिंद,
मुझे मेरी तूफानों में डूबती हस्ती का ख्याल आया।
इकट्ठी की जागीरें,नाम और शोहरत सारी जिंदगी,
अपनी रूह की तसल्ली के लिए तो कुछ न किया।
कश्मकश में सब रह गया न दौलत मिली न खुदा,
अपने ईमान को भी हर तरह से रूसवा किया।
मगर अब क्या हो सकता है सब कुछ अब खत्म,
भुगतने होगा अपना गुनाह,यही अंजाम रह गया।