पत्र
पत्र
जब भी खोलती हूँ
दिल की अलमारी
बस हर बार वही
केवल वही पत्र
नज़रों के सामने
आ जाता है
बिना सम्बोधन
लिखा पत्र।
एक एक शब्द
मानो दिल में
बस से गए हैं
बिना पेज पलटे
बंद आँखों से
पढ़ जाती हर बार।
फिर
धीरे से मन के
कोने में दबा
आँसू पौंछ
बंद कर देती हूँ
मन की अलमारी
सहेज लेती हूँ
उस पत्र को
जो लिखा
मगर डाला नहीं।
