पर्यावरणीय असन्तुलन
पर्यावरणीय असन्तुलन


सूख रहे खेतों में पौधे माँग रहे पानी-पानी
नदिया की धारा मद्धिम है माँग रही पानी-पानी
लम्बे-लम्बे हैं दरार अब तो धरती के सीने पर
सूख गए तालाब जानवर माँग रहे पानी-पानी ।
नंगे-नंगे हैं पहाड़ अब कहीं बची ना हरियाली
रहे नहीं जंगल तो कैसे हवा चलेगी मतवाली
आसमान में उड़ते-उड़ते पंछी थक कर चूर हुए
कहाँ करें आराम कहीं बगिया है ना कोई डाली ।
तापमान बढ़ गया धरा का, जीवन अब बेहाल हुआ
बीत गया सावन का महीना बारिश ना इस साल हुआ
अब की हाड़ कँपाने वाली जाड़े की रुत आई थी
बदला मौसम का मिजाज किस कारण ऐसा हाल हुआ ।
वायु प्रदूषित, जल है प्रदूषित, त्रस्त हैं सभी प्रदूषण
से
ऋषि-मुनि थे त्रस्त कि जैसे त्रेता में खर-दूषण से
हे मानव! तू ध्वनियों से क्यूँ इतना शोर मचाता है
कान हो गये बहरे आखिर क्यूँ इतना चिल्लाता है ।
सूनी आँखो से तकते बन्दर-भालू , चीता-हाथी
कैद हो गए पिंजरे में सब छूट गए संगी-साथी
चिड़िया घर में देख-देख दुनिया वाले खुश होते हैं
देख-देख दुनिया वालों को इनकी दहक रही छाती ।
नदिया-जंगल, ताल-तलैया ये पहाड़ जब ना होंगे
नहीं खिलेगा फूल कोई बस काँटे ही काँटे होंगे
धरती को है अगर बचाना कुदरत से तू बैर न कर
वरना जीवन मुश्किल होगा आखिर पछताने होंगे ।