मुक़म्मल प्यार मेरा
मुक़म्मल प्यार मेरा
सुबह की चाय और एक चुस्की उस चाय की,
गहरी सी प्रतीक्षा एक बरसो पुरानी परछाई की,
इन्हीं अमानतों को संभाले फिरता हूँ मैं,
उसके इंतज़ार में पल पल जीता हूँ मैं।
अधूरा छोड़ मुझे वो कहीं खो गई,
दिल में सैकड़ों गम की खंजर वो यूँही पिरो गई,
न जाने किस फिज़ा में वो बस्ती है,
मेरे लिए भी क्या वो पल पल तरसती है?
नीले आसमानों को गौर से देखा,
बादलों के बीच बनती एक रंगीन सी रेखा,
मेरी तन्हा आँखों में उतरने लगी,
कुछ कही अनकही यादें ज़ेहन में गुज़रने लगीं,
एक अंजान मुसाफ़िर सा यूँ उनसे मुलाक़ात हुई,
दिल के बगीचे में जैसे राहत की बरसात हुई,
मुरझे फूल फ़िर खिल उठे भीगी हुई माटी पर,
लहरा गया इश्क़ का झंडा दिल में महफूज़ उस चोटी पर,
ख़्वाबों के परिंदे इस क़दर गुफ़्तगू करने लगे,
हजार सपने पंख बिछा कर आसमान को छूने लगे,
फ़िर अचानक रात हुई और रोशनी कहीं खो गई,
उम्र भर की साथी बनके तन्हाई मेरी हो गई।
किसी बवंडर में नाजने मेरा इश्क़ भी खो गया,
एक उछलता दिल था मेरा वो भी थक के सो गया,
चाय की उस प्याली को भी ख़ुशबू उनकी याद है,
जानें कितनी खामोशी है और कितनी फ़रियाद है,
एक तूफान यूँ आएगा और संग मुझे ले जायेगा,
जीते जी जो न हुआ वो मर के मुक़म्मल हो जायेगा,
हारना हमें मंज़ूर नहीं इश्क़ का साफ़ा ओढ़ के,
एक दिन मैं भी खो जाऊँगा इस धरती को छोड़ के।

