"अपनों के सितम"
"अपनों के सितम"
हमे जहान में अपने ही देते हैं,सितम
हमे जहान में अपने ही देते हैं,जख़्म
गैरों के जहान में भले होते हैं,बुरे कर्म
गैर न रखते हैं,कभी आस्तीन में बम
दूसरे लोग भले ही दे,कितना ही गम
हमारी आंखे अपनो से ही होती हैं,नम
हमे जहान में अपने ही देते हैं,सितम
बाकी सब फ़िजूल के वादे और कसम
पराये तो बस पीछे से टांगे खींचते हैं,
अपने साथ रहकर निकालते हैं,दम
हम सोचते रह जाते हैं,महफिलों में,
और वो धोखे से काट देते हैं,कदम
आज पैसे के बिना कोई न अपना हैं
गरीबी में हररिश्ते का निकलता हैं,दम
गैर तो फिर भी दिखाते हैं,दया-धर्म
अपने सबसे पहले ओढ़ाते हैं,कफ़न
जो अपनों में ढूंढता,समायोजन हम
वो ही रिश्ता बनाता सच मे अनुपम
हर रिश्ता ज़माने में स्वार्थ से भरा हैं,
कोई भी रिश्ता यहां पर नही खरा हैं,
जो बनता यहां पे कमल जैसा गजब
वो रिश्तों के शोलों पे रखता शबनम
वो ही बन पाता हैं, सुख-दुःख में सम
जो बनाते खुद को कमल जैसी कलम।
