पृथ्वी की पीड़ा
पृथ्वी की पीड़ा
कहने को कहते पृथ्वी हम सब की माता है,
पर कहो कौन कौन अपना फर्ज निभाता है।।
पय रूप मे छाती से निचोड़कर नीर,
उसकी नमी को अनवरत मिटाते हो ।
डाल डाल जहरीले रसायन उसको ,
विषकन्या सा जहरीला बनाते हो।
हरियाली रूपी सुन्दर बस्त्रो का ,
दुशासन सा हरण करते हो।
बनाकर बहुमंजिले भवन उसके ,
ह्रदय पर उनका भार धरते हो।।
नदियां नाले झीले ताल सरोवर सभी ,
आवासो मे तुमने तब्दील कर डाले ।
दिखते तो बड़े ही सुंदर भोले भाले ,
मगर भीतर से दिल के हो बहुत काले।।
घमंड सब कुछ बनाने का तुम्हे एक दिन ,
तुम्हे सुविधाओ सहित विदा कर देगा।
प्रकृति का विनाश तुम्हारे जीवन का उपवन ,
एक न एक दिन अवश्य ही उजाड़ देगा ।
मै तो सहनशील हूं सब सब सहन कर लूंगी ,
याद रहे तेरे पापों का प्रतिशोध लेकर ही रहूँगी ।।