प्रश्नचिन्ह
प्रश्नचिन्ह
ये पैसे का कैसा छाया है जादू, आदमी कितना हो गया बेकाबू।
एक अंधी दौड़ में भागी है ये दुनिया, पाने को पैसा ही पैसा ।।
भागा है आदमी जब जब ही खुद से, रोयी मानवता भी तब से।
टूटते हैं रिश्ते, बन रही दीवारें, हाय, कैसे ये धरा खुद को सँवारे।।
ये प्रेम की दुनिया, बनी पैसे की दुनिया, रिश्ते भी पाने लगें धोखे।
मनुज न जाने क्यो चल पड़ा है, कागज़ के ही टुकड़ो के पीछे।।
धरा पर केवल वह ही कमाता, जिसे धरा पर ही धरा रह जाना।
रे मानव!न जाना तूने कभी भी, अपने अंतस का वो खज़ाना।।
जो देता हैं तुझको असीमित सी शक्ति, प्रेम संग एक प्यारी भक्ति।
मिलता तो खुद से, जगा प्रतिभा का खजाना, सत्य ये तूने न जाना।।
आओ चलो फिर से धरा सजाए, प्रेम और करुणा दिलो में बसाए।
कमाएंगे पैसा, पर न है भागना, खुद का खुद से मिलन भी कराना।।
ये वसुधा तो केवल प्रेम की, पैसे का न यहाँ कोई ठिकाना।
उपजा प्रेम जो कण कण में, हर प्रश्न का फिर हल मिल जाना।।