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DR ARUN KUMAR SHASTRI

Tragedy

4.5  

DR ARUN KUMAR SHASTRI

Tragedy

परमानेंट लाइफ टाइम

परमानेंट लाइफ टाइम

1 min
222



शाम जब भी ढलती है 

मन धड़कता है 

कुछ भी कर न पाया 

और दिन निकल जाता है 


रौशनी धीरे धीरे

सिमटने लगती है 

शाम जब भी ढलती है 

 मन धड़कता है 


तेरे जाने से फर्क क्या पड़ा होगा 

साथ रहने से भी क्या बदला होगा 

शाम तो हर रोज 

उन्हीं दिनों जैसे 

आज भी रात में बदलती है 


सोच मेरी मुझी पे गुस्सा है 

कैसा इंसा हूँ कैसा बंदा हूँ 

कोई बोले क्या कसूर मेरा है 

ये जो फितरत ये पैदाइशी है 


तंग आकर उसने मुझको छोड़ दिया 

अब अकेले ही किसी फ्लैट में वो रहती है 

फोन नंबर भी बदल लिए उसने 

अब न मिलती है न बात करती है 


हक़ तो बच्चों पर भी वाल्दैन का कहाँ होता है 

उम्र अठारह की उन्नीस में जब बदलती है 

वो तो महज छे माह भर को साथ थी 

कैसे कह दूँ मुझे तेरी जरुरत है 


शाम जब भी ढलती है 

मन धड़कता है 

कुछ भी कर न पाया 

और दिन निकल जाता है 


रौशनी धीरे धीरे

 सिमटने लगती है 

शाम जब भी ढलती है 

 मन धड़कता है 


सिलसिला तारीख के बदलने का 

ब - दस्तूर आज भी ज़ारी है 

हुआ था नहीं पैदा जब मैं दुनिया में 

तब से लेकर के मेरे न होने तलक 

वक्त तो हर किसी पे भारी है 


शाम जब भी ढलती है 

मन धड़कता है 

कुछ भी कर न पाया 

और दिन निकल जाता है 


रौशनी धीरे धीरे

सिमटने लगती है 

शाम जब भी ढलती है 

 मन धड़कता है।


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