प्रकृति का कहर
प्रकृति का कहर
प्रकृति का है कैसा कहर,
हर तरफ उजड़ा मंज़र।
न दिख रहा कोई अपना,
अतीत बन गया जैसे सपना।
बरसों की कमाई बन गयी हवा,
जाने कहां गयी हो गयी खफा।
एक एक चीज़ जोड़ी गयी
करके तिनका तिनका जमा।
यूँ कहर ढाया प्रकृति ने,
छिपा दी जाने कहाँ।
खुशियों के देखे थे पल,
अब वो बन गए जैसे कल।
वर्तमान में आया हो जैसे,
हर तरफ दुख का सैलाब।
हर आंख से आँसू गिरते,
निराशा की हो करतार।
रोना बिलखना चीखना चिल्लाना,
लगता है बस यही फ़साना।
हर कोई जो अपनो दूर,
ठहराता प्रकृति का ही कसूर।
स्वार्थी मानव जीवन अनुकूल,
याद नहीं उसको अपनी भूल।
जो खेलेगा इस प्रकृति से,
वो भी खेलेगी जीवन से।
जैसा दोगे वैसा मिलेगा,
इसके सिवा न कुछ दिखेगा।
ऐ मानव तू प्राण बचा ले,
दोनों को ही तू संभाल ले।