प्रकृति और पुरुष
प्रकृति और पुरुष
एक बार फिर से जंग छिड़ी है
प्रकृति और पुरुष में
जंग जो पुरानी है इतिहास से भी
प्रकृति जिसने पुरुष को
कभी डराया, कभी पुचकारा
कई बार उसे आगे बढ़ने
का रास्ता दिखाया
कभी एक प्रेमिका की तरह अपने
पुरुष पर सब कुछ अर्पण कर दिया
और फिर कभी उसे घायल
और लहू लुहान कर दिया
पुरुष जिसने लगातार
प्रकृति को देखा और समझा
उस पर कभी मोहित हुआ
और कभी उससे बेबस हुआ
उससे डरा, उसको पूजा और
उसे खुश करने का हर प्रयास किया
उससे लड़ा, उससे जीता और
कई बार उसे अपने वश में किया
एक बार फिर से जंग छिड़ी है
प्रकृति और पुरुष में
जंग जो पुरानी है इतिहास से भी
ये रिश्ता है अनोखा
ये रिश्ता है सनातन
बस एक दूसरे पर विजय,
इतना सा ही नहीं ये रिश्ता
पुरुष जो कर्मठ है,
जो जिद्दी है
वो नहीं हारेगा कभी
लड़ता रहेगा और जीतेगा भी
क्यूंकि यही है जो वो करता आया है
यही है जो उसे प्रकृति ने सिखाया है
प्रकृति जो मद भरी है,
अनजान है
पुरुष जिसकी संतान है
वो न रुकेगी कभी
वो न मारेगी कभी
यही उसकी पहचान है
यही उसका काम है
पुरुष को आज फिर खड़ा होना है
प्रकृति को फिर से समझना है
फिर से उससे लड़ना है
और शायद कहीं एक संतुलन ढूंढ़ना है
एक बार फिर से जंग छिड़ी है
प्रकृति और पुरुष में
जंग जो पुरानी है इतिहास से भी।
