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Saurabh Chauhan

Abstract Tragedy

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Saurabh Chauhan

Abstract Tragedy

दिल भी कितना बेबस है

दिल भी कितना बेबस है

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दिल भी कितना बेबस है कि जैसे दिल में बसी है बेबसी 

दिल को बस में खूब किया बस बस में ही नहीं ये बेबसी 


ले आओ बोतल ले आओ गिलास वो यादों भरा लिबास 

वही दिन और फिर वही रात ये बेबस आदतों की बेबसी 


ये बाप का मुरझाता शरीर ये माँ की आहें दर्द भरीं 

ज़िन्दगी को मौत की शह वक़्त के आगे रोती बेबसी 


दाल में कंकड़ क्या मिला दोस्त की खाल में भेड़िया 

आँसू भी अब पानी लगें शक भरी नज़रों की ये बेबसी 


जो है उसमे चैन कहाँ कम पड़ गए ज़मीन-ओ-आसमाँ 

रोटी से सस्ती है जान यहाँ वहशत सी भूखी बेबसी 


रात भी है अभी जवाँ और वो भी हैं आये यहाँ 

उमंगें भी हैं जाग उठीं पर नींद है कि बेबसी 


जश्न की शहनाइयाँ या हों शोक की गहराइयाँ 

भीड़ में कोई अपना नहीं कोने में खड़ी चुप बेबसी।


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