रास्तों पर जैसे धुंध सी छाने लगी है
रास्तों पर जैसे धुंध सी छाने लगी है
रास्तों पर जैसे धुंध सी छाने लगी है
ख्वाबों को जैसे नींद सी आने लगी है
क्या क्या पाया यहाँ और क्या कुछ खोया
गम के आगे खुशी कम सी लगने लगी है
घर में कभी इतनी सीढ़ियाँ तो न थी
घुटनों में अब एक पीर सी होने लगी है
बहुत दिन हुए सूरज से मिलना न हुआ
दीवारों में अब सीलन सी आने लगी है
कल था या कल है ये चेहरा किसका है
यादों को जैसे दीमक सी लगने लगी है
दिन भर सूखी लकड़ियाँ बीनता रहता हूँ
रातों में जैसे एक चिता सी जलने लगी है।
