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ashok kumar bhatnagar

Classics Inspirational Children

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ashok kumar bhatnagar

Classics Inspirational Children

"परिंदे का आशियाना" (एक बिखरे ख्वाब से नई उड़ान तक)

"परिंदे का आशियाना" (एक बिखरे ख्वाब से नई उड़ान तक)

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मत पूछ परिंदों के टूटे आशियानों की दास्तान,
 आज यहाँ, कल वहाँ — जैसे बेघर ख्वाबों की पहचान।
 न कोई ठिकाना, न कोई छाँव की आस,
 बस पंखों में जज़्बा और दिल में विश्वास।

सोच उस रात का अंधेरा जब तू चादर में सुकून पाता,
 वो परिंदा काँपता है —
 जिसका कोई आशियाना नहीं,
 जिसे हर झोंका बेदर्द ठिकानों से दूर उड़ा ले जाता।

एक परिंदा… टूटा पंख, लहूलुहान सपने,
 फिर भी निगाहें जमाए दूर कहीं आशियाने पर।
 दर्द की हर लहर को चीरता,
 आस के दीप जलाता,
 वो बढ़ता गया… हौसले को अपने सर पर उठाता।

और जब पहुँचा वो थका-मांदा, दर्द से कांपता,
 तो क्या देखा —
 उसके जीवन का सपना कोई बेरहम शिकारी
 तहस-नहस कर गया था!

बिखरे थे तिनके…
 जैसे टूटे वादे, जैसे खोई स्मृतियाँ।
 वो चुप था, पर उसका अंतर्मन चीख उठा —
 “क्यों छीना गया मेरा बसेरा?
 क्यों लूटा गया मेरा सवेरा?”

पर वह थमा नहीं,
 उसने आँसू नहीं बहाए,
 उसने रोशनी की तलाश में
 फिर एक नया सूरज उगाया।

उसकी आँखों में अब
 ना केवल पीड़ा थी,
 बल्कि वो आग थी —
 जो राख से फिर जन्म लेने को तैयार थी।

नई उड़ान की ललक में
 उसने आसमान को फिर छूना चाहा,
 नई ऊँचाइयाँ, नई दिशाएँ,
 जहाँ दर्द नहीं — बस रौशनी की छाया।

और आज —
 उसका आशियाना फिर बसा है,
 ख्वाबों की नरम चादर में लिपटा है।
 जहाँ हर तिनका प्रेम से जुड़ा है,
 जहाँ उम्मीदें ओस की बूंद बन बरसती हैं।

उस आशियाने में
 उड़ानें कविता बन गूंजती हैं,
 हर सुबह एक नया गीत बन गाती है,
 हर शाम चाँदनी में मुस्कुराती है।

परिंदों का आशियाना अब सिर्फ़ एक ठिकाना नहीं,
 वो हिम्मत की गवाही है,
 संघर्ष की निशानी है,
 और आत्मा की रूहानी कहानी है।


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