परी
परी
तन्हा था, अकेला था
खुश था, ना कोई पास झमेला था
किस्सों में, कहानी में
खोया था
जीता था हर एक कहानी में
ढूंढ रहा था एक परी को
वो हँसे तो दुनिया चहके
कण – कण धरती का
उसकी खुशबु से महके
जन्नत से आयी वो
जादू सा बिखेरे वो
पलकें भी न मिले खुद से
छोड़ सारी दुनिया को
उसकी एक झलक को तरसे
वो शब्द कहाँ के लाऊं
खुद इस को बनाकर रब भी
भूल गया खुद को भी
होश खोया जब रब ने
कैसे बताये, कैसे खुद
को संभाला हमने
उसके होठ खिलें
उसने ली अंगड़ाई तो
धरती पर छायी तरुणाई तो
अनुपम, चिरकालिक
सुन्दरता उसकी
रूप की हर सीमा
कायल है उसकी
सागर की लहरों से बढ़कर
उसके यौवन की लहरें थीं
सारी हवायें, सारी घटायें
उसकी सुन्दरता से जलती थी
प्रकृति को हैरत थी
अद्भुत थी सुन्दरता उसकी
वो अद्भुत बातें करती थीं
हर पल में देखूं उसको
हर पल में सोचू उसको
सच था, या ये सपना था
मेरा हर पल उसके संग
वो परी कहीं से आयी हो
अब हम दोनों को एक में होना
तन्मय था
मन के चंचल सपनों में
या परियों की उस जन्नत में
मेरी खुद की अब पहचान कहाँ
मुझे होश कहाँ, मुझे चैन कहाँ
पल से भी छोटे पल में
मैं परी में डूबूं
मैं परी से निकलूं
क्या रात खत्म हो आयी थी ?
या उस ख़ुदा के मन में
मेरे लिए जलन हो आयी थी
ये सारी प्रकृति, सारी धरती
सब मिलकर, उसको मुझसे
छीन ले जाने आयी थी
सपना टूटा, और ना
जाने क्या क्या ?
सब जीत गये और
मैं हारा, क्या – क्या ?
मैं स्थिर, शिथिल पड़ा हूँ
किससे पूछू, कहाँ मैं ढूंढू
वो है मेरे अन्तरमन में
मुझसे वो समायी है
इन प्राणों को छोडूं कैसे
वो परी ही मेरी सच्चाई है
वो परी ही मेरी सच्चाई है...