प्रेम
प्रेम
प्रेम निष्फल, निष्पक्ष, निर्मल है मेरा,
तुम कहते हो पाने की लालसा क्यूं नहीं?
जिसे मैं आज़ाद कर के छोड़ना चाहती हूं,
तुम कहते हो उसे रोकतीं क्यूं नहीं?
उसके सुख में सुखी और दुःख में दुखी हूं मैं,
तुम कहते हो हक् चाहतीं क्यूं नहीं?
मुझे फर्क नहीं उसके दिए दर्द से,
तुम कहते हो जाकर बात करती क्यूं नहीं?
उसके रग रग के हाल का एहसास हैं मुझे,
तुम कहते हो गलतफहमी दूर करतीं क्यूं नहीं?
मुझे इंतज़ार है मेरे वक्त के फैसले का,
तुम कहते हो बेवफाई पर कुछ कहती क्यूं नहीं?
तो सुनों मेरे दोस्त..
क्या करूं उसे पाकर?
जब पता हैं वो चाहता ही मेरा होना नहीं!
क्या करूं उसे रोक कर?
जब पता हैं वो चाहता ही रूकना नहीं!
क्या करूं उससे हक़ लेकर?
जबा पता हैं वो चाहता ही देना हक़ नही!
क्या करूं बात कर के?
जब पता हैं वो चाहता ही करना बात नहीं!
क्या करूं गलतफहमी दूर करके?
जब पता हैं वो चाहता ही मिलना मुझसे नहीं!
क्या करूं उसकी बेवफाई पर बोलकर?
जब पता हैं वो चहता ही किसी से करना वफा नहीं!
"मैं खुश हूं सब्र से उसके लिए तड़पकर,
जब पता हैंं अब मिलने पर छोड़ जाने का मुझमें सब्र नहीं!

