प्रेम
प्रेम
नैनों से दर्शन हो वह प्रेम नहीं,
नित बदलते भाव का नाम प्रेम नहीं।
मन को सुभाषित कर जाता है प्रेम,
हठ नहीं वरन साधना है प्रेम।
उन्मुक्त होकर भी स्वच्छंद नहीं प्रेम,
निर्विकार डूब जाना ही है प्रेम।
अनुभूतियों को लिए संग,
प्रेम तो है हृदय में उठती मृदु तरंग।
इंसानियत की नई राहें दिखाती,
प्रेम है ईश्वर की लिखी सर्वोत्तम पाती।
निर्मल निर्झर प्रवाह है प्रेम,
अंतर्मन की ज्योति बना है प्रेम।
प्रेम नहीं अश्रु की माला का हार,
वह बना है सृष्टि का आधार।
वैराग्य की पीड़ा भी है इसमें समाहित,
सच्चे प्रेम में तन ही नहीं हर मन है लिप्त ।
प्रेम समर्पण का है तंत्र,
स्वज्ञान से रचित है यह ग्रंथ।
समग्रता से उदित होता है प्रेम,
आत्मसात हो सुवासित कर देता है प्रेम।
हृदय का हृदय से है संवाद,
सात्विक प्रेम ही है मन का अंतर्नाद।

