प्रेम..तू ऐसा क्यों हैं?
प्रेम..तू ऐसा क्यों हैं?


उम्र का बदलता एहसास
ईक्षण अश्रुओं से भर देता
एकाकीपन का दर्द अब सहा नहीं जाता
तुम्हारे प्रस्थान पर शून्यता का आभास था
पर....मेरे हाथों को थामे तुम्हारी रूहानी प्रेम का साथ था
तुम्हारी रूह को सदैव साथ चलते पाया
मेरी गर्म उंगलियों पर सर्द हवाओं की छुअन
मेरी आत्मा को तसल्ली देता
तुम थे....आस पास
देखा मैंने कई बार, कनखियों से मेरी सूरत निहारते हुए
कोरो को भीगते हुए
आंखों को कोरो को भीगते देखती
तड़पती मैं....आंसुओं की उन बूंदों को ना पोंछ पाने पर
प्रेम....तू ऐसा क्यों हैं?
ना जीने देता, ना मरने
तुमसे अलग हो कर जीना मुश्किल
तुम्हारे अहसास से अलग हो कर मरना
तुम्हारे प्रेम ने किया मेरे हृदय का अमिट आलिंगन
मन की असंख्य वेदना फूट पड़ी
प्रेम का गुलमोहर रक्ताभ हो रही
तन, मन, हृदय अदृश्य राह पर दौड़ पड़ी
तुम्हारे द्वार
पहुंचना था सबसे पहले