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प्रेम के हरे दिन

प्रेम के हरे दिन

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कभी मन होता है

समय की अनवरत बहती धारा को

रेत की बाड़ से रोक दूँ

मुस्कराऊँ फिर

रेत को क़तरा क़तरा पानी में घुलते देखकर।

 

कभी मन होता है

समंदर की गोद में पाँव रखे

बैठी रहूँ नदी की तरह

बुदबुदाऊं अनकहा

और समंदर हो जाऊं।

 

कभी मन होता है

कैनवस पर यूँ ही बिखेर दूँ सारे रंग

फिर ढूँढूँ

अपने-उसके बीच का रंग।

 

कभी मन होता है

स्मृति की भूरी हथेली पलटकर

रख दूँ आँख से गिरी अदनी-सी पलक

और मांग लूँ एक बार फिर…

प्रेम के हरे दिन।

 

 


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