ये मैं ही हूँ
ये मैं ही हूँ
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एक थका माँदा रस्ता
मेरे हलक़ से होकर गुज़रता है
आया कहाँ है मालूम नहीं
पर मिलता है जा कर
मेरे धड़ के बायीं ओर बनी
अँधेरी कोठर में....
कोई मुसाफ़िर कोई राहगीर
नहीं दिखता उस पर चलता हुआ
पर दो पैर दिखते है
बनते-मिटते, मिटते-बनते
आखिर कौन है वो
जो आईना पहने फिरता है
हाँ ये मैं ही तो हूँ
जो ख़ुद से चलकर ख़ुद तक पहुँचता हूँ
जो ख़ुद से चलकर ख़ुद तक पहुँचता हूँ........